जौनपुर के विजय यादव ने लिखी कहानी बिरजू थका-हारा अपनी झोपड़ी में लौटा। उसका उतरा हुआ मुख देखकर उसकी पत्नी ने पूछा आज भी आपको काम नही मिला? उसने कुछ नहीं कहा। झोंपड़ी में अंधियारा छाया था।
बिरजू की पत्नी ने दीपक जलाते हुए कहा, जरा-सा तेल है, पता नहीं यह दीपक भी कितनी देर जलेगा? गरीब बिरजू के दुर्दिन चल रहे थे। एक फैक्टरी में काम करते उसने अपना एक हाथ खो दिया था। अपाहिज बिरजू को अब काम के लाले पड़ गए थे। पत्नी भी उसकी उपेक्षा करने लगी थी। तभी पत्नी ने उसे थाली परोसी। दो सूखी रोटियां थाली में रखी थीं। बिरजू को लगा कि बच्चों ने शायद खाना नहीं खाया है। उसने झिझकते हुए पत्नी से पूछा, बच्चों ने खाना खा लिया?
पत्नी ने कहा, हां, एक-एक रोटी उन्हें भी दी थी, पर छोटू दूध और सब्जी के लिए रोता रहा। रोते-रोते वह सो गया है। कल के खाने के लिए तो कुछ भी नहीं है। उसका मन हुआ कि इस अभाव भरी जिंदगी से अच्छा है कि वह सपरिवार मौत को गले लगा ले। उसके नेत्र भर आए।
वह चुपचाप सूखी रोटियां निगलने लगा। तभी उसने देखा कि दीपक की लौ तेज जल रही है। वह उठा और दीपक में तेल देखने लगा। दीपक में तेल नाममात्र को था, पर दीपक तेज लौ में जल रहा था। उसने देखा कि दीपक की लौ तेज होती जा रही थी और अचानक दीपक जोरों से भभका और बुझ गया। झोपड़ी में अंधेरा छा गया।
उसने सोचा कि जब छोटा-सा दीपक अपने अस्तित्व के लिए इतना तीव्र संघर्ष कर सकता है। तेल न होने पर भी वह अपनी जलने की गति तीव्र कर देता है और अंत तक संघर्षरत होता है, तो वह हार क्यों माने? अब वह संघर्ष करेगा। मरने की बात सोचना कायरता है। बिरजू के मन में आशा और आत्मविश्वास के सैकड़ों दीप जगमगा उठे।......
No comments:
Post a Comment